Thursday 3 December 2020

धर्मपाल गुलाटी महाशय दी हट्टी (MDH)


भारत की आज़ादी के बाद कई उद्योगपतियों ने देश की GDP बढ़ाने में योगदान दिया। टाटा, बिरला पहले से ही स्थापित थे, बाद में अंबानी भी आए। लेकिन, इन सबके बीच सियालकोट (तत्कलीन ब्रिटिश इंडिया, अब पाकिस्तान) को छोड़ कर दिल्ली आया एक ऐसा व्यक्ति भी था, जिसे भरण-पोषण को ताँगा चलाने को मजबूर होना पड़ा, लेकिन उसने अपनी जिजीविषा से भारत में मसालों का इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा किया कि उसकी माँग दुनिया भर में बढ़ी। दिल्ली के करोलबाग और कीर्तिनगर में 1950 के दशक में स्थापित दुकानें 'महाशय दी हट्टी (MDH) के विस्तार का आधार बनीं।

शायद उनके बारे में इसीलिए भी बात नहीं होती थी, क्योंकि वो प्रखर आर्य समाजी थे। अपने जीवन में जो भी कमाया, उसका एक बड़ा हिस्सा आर्य समाज के क्रियाकलापों में लगाने में कभी पीछे न हटे। वो हमेशा कहते थे कि पैसे के पीछे मत भागो, अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाओ कि पैसा तुम्हारे पीछे भागे। एक उदाहरण बताता हूँ। अजमेर में ऋषि उद्यान में मेला चल रहा था, वहाँ पहुँचे महाशय धर्मपाल गुलाटी ने पूछा कि इसकी निधि में कितना धन है? उन्हें बताया गया - ₹35 करोड़। उन्होंने कहा कि इसे दोगुना कर दो और इतने ही अपनी तरफ से डाल दिए।

दयानंद सरस्वती के शहर में आर्य समाज के कार्य में भला वो पीछे कैसे हट सकते थे। उनके नाम पर बनने वाले म्यूजियम के लिए रुपए दान दिए। ₹2000 करोड़ के ऑपरेटिंग इनकम तक अपनी कम्पनी को पहुँचाने वाले धर्मपाल ₹21 करोड़ सैलरी लेते थे, लेकिन इसका 90% हिस्सा चैरिटी में दान कर देते थे। बहुत बड़े गोभक्त थे। वैदिक क्रियाकर्मों से खास लगाव था, इसीलिए न जाने कितने ही याज्ञिक विद्यालयों की स्थापना की। 1959 में पहली फैक्ट्री खोली, आज इसके 61 वर्षों बाद उन्होंने अंतिम साँस ली है, 98 की उम्र में।

इस उम्र में भी वो कम्पनी की बैठकें लिया करते थे। कोरोना काल मे भी विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सा लिया करते थे। कोरोना संक्रमित भी हुए, फिर ठीक भी हो गए। 1933 में जब वो 5वीं कक्षा में थे, तभी उन्हें अपनी स्कूली पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। अपने पिता से ₹1500 लेकर ₹650 में ताँगा खरीदा, लेकिन ये ज्यादा दिनों तक चला नहीं। आज दुबई और लंदन में MDH के दफ्तर हैं। 100 देशों में बेचे जाते हैं। उनकी 6 बेटियों ने विभिन्न क्षेत्रों की जिम्मेदारी संभाल रखी है। Contract Farming उनकी कम्पनी का मुख्य स्रोत था।

आज इसी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का विरोध हो रहा है, जहाँ सारी चीजें किसानों के हाथ में दे दी गई है। सोचिए, जब इस एक कम्पनी से किसानों को भी फायदा हुआ और व्यापार भी आगे बढ़ा - आज खालिस्तानी इसका विरोध कर रहे.. धर्मपाल गुलाटी की सैलरी ITC, Hindustan Uniliver और गोदरेज के CEOs की सैलरी से भी ज्यादा थी। उन्होंने अपने पिता चुन्नी लाल के नाम पर चैरिटी ट्रस्ट के गठन किया था। आज इसके 250 बेड वाले अस्पताल चलते हैं। झुग्गी-झोंपड़ी वालों के लिए मोबाइल अस्पताल चलते हैं। गरीबों के लिए 4 स्कूल अलग से।

टीवी पर दिखने का शौक था, इसीलिए आपने कम्पनी के अधिकतर विज्ञापनों में उन्हें ही देखा होगा। उन्होंने अपने निधन तक कम्पनी में 80% स्टेक रखा हुआ था, जो बहुत बड़ी बात है। कहते हैं, कभी उनके ताँगे के लिए यात्री तक नहीं मिलते थे, कुछ ने उन्हें गालियाँ भी दी थीं - इसी अपमान के कारण उन्होंने उसे घोड़ों सहित बेच डाला था। आज 4 लाख रिटेल डीलरों तक उनका मसलों का साम्राज्य फैला हुआ है और उनके 60 प्रोडक्ट्स कर लिए रोजाना 30,000 टन से भी अधिक पाउडर तैयार किए जाते हैं।

आज आर्य समाजी संगठनों में शोक की लहर है। वैदिक कार्यक्रमों और वैदिक क्रियाकलापों को आगे बढ़ाने वाले उद्योगपति आज के जमाने में कहाँ मिलते हैं। देश को ऐसे ही उद्योगपतियों की ज़रूरत है, जो अपनी संस्कृति और विरासत को आगे बढ़ाए। एक ताँगे से शुरू कर के ₹2000 करोड़ का साम्राज्य खड़ा करने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस दौरान अपने इतिहास को पहचान कर इस रुपए का इस्तेमाल देश की मिट्टी के लिए करना, धर्म के लिए करना। वो सिखा गए हैं कि आपकी उम्र और स्थिति जो भी हो, मौके अभी भी हैं.. आगे भी मिलेंगे..


लेखक : अनुपम के. सिंह, सीनियर सब एडीटर,ऑप इण्डिया

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