Tuesday 3 November 2015

हकीकत या सियासत!!!


एस गुरुमूर्ति (गुरुमूर्ति जी अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्धवान और अर्थशास्त्री है )

उत्तर प्रदेश के दादरी में एक मुस्लिम व्यक्ति की क्रूर ढंग से पीट पीटकर हत्या कर दी गई, क्योंकी कुछ लोगो ने माना कि उसने गोवध किया था. जरा, तथ्यों पर नजर डालिए कि बहस किस प्रकार बढ़ी. उत्तर प्रदेश में धर्मनिरपेक्ष समाजवादी पार्टी की सरकार है, जिसके मुखिया मुलायम सिंह यादव हैं और उनके पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हैं. किसीने समाजवादी पार्टी को निशाना नहीं बनाया और मुलायम या अखिलेश से सवाल नहीं किए. कहा गया- 'मोदी के शासन में भारत की विविधता खतरे में है'. मीडिया, विपक्ष और साहित्य अकादमी अवार्ड विजेताओं ने यह आरोप लगाया, जिनका निशाना मोदी हैं. इसके एक महीने पहले ही धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस शासित कर्नाटक में मीडिया द्वारा तर्कशास्त्री (रेशनलिस्ट) कहे जाने वाले एक व्यक्ति की हत्या कर दी गयी. तब किसी ने राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को जिम्मेदार नहीं ठहराया. दोबारा मोदी को निशाने पर लेते हुए मीडिया, विपक्ष और बुद्दिजीवियों ने कहा कि हिन्दू ताकतें जिम्मेदार है. इससे पहले महाराष्ट्र में भी एक तर्कशास्त्री की हत्या हुई थी. तब केंद्र और राज्य, दोनों में कांग्रेस की सरकारें थी. तब भी किसीने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष से कोई सवाल नहीं किया. लेकिन पूर्व लिखीत पटकथा के तहत हिन्दू ताकतों को ही जिम्मेदार ठहराया गया. 
हाल ही में सुधीन्द्र कुलकर्णी, जो नेक इरादों वाले पीस एक्टिविस्ट हैं, जिन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच एक मध्यस्त की नयी भूमिका खोजी है, उनके चेहरे को शिवसेना ने स्याही पोतकर कला कर दिया. पूरी धर्मनिरपेक्ष जमात ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि भारत में 'असहिष्णुता' (इससे मोदी पढ़ा जाए) का राज है.
इससे दो दिन पहले ही किसी अनजान हिन्दू सेना के दो लोगों ने कश्मीरी विधायक का चेहरा काला कर दिया, जिसने बीफ पार्टी का आयोजन किया था. इसी दिन शिवसेना ने भारत-पाक क्रिकेट सीरीज पर बातचीत न होने देने के लिए बीसीसीआई दफ्तर में धावा बोल दिया. मीडिया में चीत्कार था- 'घृणा फ़ैलाने वालों के हमले ने भारतीय लोकतंत्र के चेहरे को काला किया.' 
धर्मनिरपेक्ष भारत की व्याकरण में खून बहाने से ज्यादा हिंसक स्याही की बोतल फेंकना है. याद कीजिये, जब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमारे रेलवे स्टेशनों पर, सड़क पर, मुंबई के होटलों में खुनी खेल खेला था, तब धर्मनिरपेक्ष जमात, मीडिया और बुद्धिजीवियों ने शांति की अपील की और समरसता के लिए मोमबत्तियों के साथ जलसा निकाला था. और अब ये 'माननीय' क्या कर रहे हैं? शांति और समरसता स्थापित कर रहे हैं?
इनका उद्देश्य समरसता नहीं है. इनका निशाना है मोदी. इसके लिए ये सबसे असहिष्णु चेहरों (अनजान), को अख़बार के फ्रंट पेज पर लाने की तलाश में रहते हैं. वे चिल्लाते है कि 'मोदी को बोलना चाहिए.' वे पूछते हैं 'मोदी चुप क्यों हैं?' क्या उन्हें महाराष्र्े और कर्नाटक में तर्कशास्त्रियों की मौत के बारे में सोनिया गाँधी या मनमोहन सिंह से पूछा था कि वे कांग्रेस राज में क्यों मारे गए? क्या उन्होंने दादरी की घटना पर मुलायम या अखिलेश यादव से सवाल किए? राज्यों में विफल कानून-व्यवस्था के कारण होने वाली घटनाओं के लिए केंद्र सरकार कब से जिम्मेदार हो गई?
सनसनी में रूचि रखने के लिए मीडिया को धन्यवाद! मीडिया द्वारा क्रिकेट जैसे रोमांचक विषय को पारंपरिक विरोधी मुल्क पाकिस्तान के साथ जोड़ने की वजह से शिवसेना को तवज्जो मिल गई, जो इसे बरसों से नहीं मिल रही थी. 
आज देश में स्थिति यह है किसीको भी सुर्ख़ियों में छाना है तो बस वह बीफ खाने वालो के खिलाफ कुछ बोल दे या उन पर स्याही फ़ेंक दे. जब एक नौसिखिया यह जनता हो कि कैसे सबसे बड़े अंग्रेजी अख़बार के फ्रंट पेज पर जगह बनानी है तो अनुभवी शिवसेना ऐसा क्यों नहीं करेगी- खासतौर पर जब वह अपनी खोयी हुई प्रासंगिकता तलाश रही हो, जो मोदी के आने के बाद छीन गई. 
इसी तर्ज पर लैटर हेड पर चलने वाली हिन्दू सेना भी ऐसा क्यों नहीं करेगी? ऐसे ही बाकी संगठन, जिनका कोई नामोनिशां नहीं है, वे अख़बार में छपने या टीवी (इडियट बॉक्स) में दिखने के लिए ऐसी हरकते क्यों नहीं करेंगे? पर सवाल ये है कि क्या वे केवल हिंदुत्व वाली सेनाएं हैं? जबकि उनकी ताकत सिर्फ स्याही फ़ेंक कर सुर्खियाँ बटोरने तक ही सिमित है. 
मीडिया खबरों की कमी के कारण इन सेनाओं को खबरों के श्रोत की तरह देखता है. तरस खाने वाली बात यह है कि इन्हें तवज्जो नहीं दी जाए तो चौबीस घंटे खबरों वाले टीवी चैनल कैसे चलेंगे और 60 पन्नो के अख़बार में विज्ञापनों के बीच ख़बरों के कॉलम कैसे भरे जायेंगे? ऐसी खबरें बहार भी जाती है. 17 अक्टूबर 2015 को न्यू यॉर्क टाइम्स ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था- 'हिंसा पर सर्कार की चुप्पी के विरोध में भारतीय साहित्यकारों ने अवेद लौटाए.' आखिर इसके अलावा मोदी द्वारा विदेशों में भारत की छवि को सुधारने के लिए किये गए अच्छे कम को कैसे बिगाड़ा जा सकता है?
वर्ष 1998-99 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, मध्यप्रदेश और ओडिशा में नन के साथ बलात्कार की घटनाएं हुई. समाजसेवी ग्रैहम स्टेंस को जिन्दा जलाया गया. कहा गया भारत में हिन्दू ईसाईयों के खिलाफ है. पर सच क्या था? इन घटनाओं के लिए नियुक्त वाधवा जाँच आयोग ने धर्मनिरपेक्ष जमात और मीडिया पर झूठ फ़ैलाने के लिए करारा तमाचा जड़ा.  
बहरहाल, जो कुछ आज नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए हो रहा है, क्या वो वाजपेयी के दौरान हुई घटनाओ का 'एक्शन रीप्ले' नहीं है? क्या मीडिया, धर्मनिरपेक्ष जमात और विपक्ष वही काम नहीं कर रहे है जो 15 साल पहले वाजपेयी सरकार में कर रहे थे?


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