Saturday 26 December 2020

कानपुर की "कपड़ा मिल"

 एक जमाना था .. 

कानपुर की "कपड़ा मिल" विश्व प्रसिद्ध थीं ।

कानपुर को "ईस्ट का मैन्चेस्टर" बोला जाता था।

लाल इमली जैसी फ़ैक्टरी के कपड़े प्रेस्टीज सिम्बल होते थे. वह सब कुछ था जो एक औद्योगिक शहर में होना चाहिए।

मिल का साइरन बजते ही हजारों मज़दूर साइकिल पर सवार टिफ़िन लेकर फ़ैक्टरी की ड्रेस में मिल जाते थे।  बच्चे स्कूल जाते थे। पत्नियाँ घरेलू कार्य करतीं । और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही लाखों सेल्समैन, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी चल रही थी।

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फ़िर "कम्युनिस्टों " की निगाहें कानपुर पर पड़ीं.. तभी से....बेड़ा गर्क हो गया।

"आठ घंटे मेहनत मज़दूर करे और गाड़ी से चले मालिक।" 

ढेरों हिंसक घटनाएँ हुईं, 

मिल मालिक तक को मारा पीटा भी गया।

नारा दिया गया 

"काम के घंटे चार करो, बेकारी को दूर करो" 

अलाली किसे नहीं अच्छी लगती है. ढेरों मिडल क्लास भी कॉम्युनिस्ट समर्थक हो गया। "मज़दूरों को आराम मिलना चाहिए, ये उद्योग खून चूसते हैं।"

कानपुर में "कम्युनिस्ट सांसद" बनी सुभाषिनी अली । बस यही टारगेट था, कम्युनिस्ट को अपना सांसद बनाने के लिए यह सब पॉलिटिक्स कर ली थी ।

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अंततः वह दिन आ ही गया जब कानपुर के मिल मज़दूरों को मेहनत करने से छुट्टी मिल गई। मिलों पर ताला डाल दिया गया।

मिल मालिक आज पहले से शानदार गाड़ियों में घूमते हैं (उन्होंने अहमदाबाद में कारख़ाने खोल दिए।) कानपुर की मिल बंद होकर भी ज़मीन के रूप में उन्हें (मिल मालिकों को) अरबों देगी। उनको  फर्क नहीं पड़ा ..( क्योंकि मिल मालिकों कभी कम्युनिस्ट के झांसे में नही आए !)

कानपुर के वो 8 घंटे यूनिफॉर्म में काम करने वाला मज़दूर 12 घंटे रिक्शा चलाने पर विवश हुआ .. !! (जब खुद को समझ नही थी तो कम्युनिस्ट के झांसे में क्यों आ जाते हो ??)

स्कूल जाने वाले बच्चे कबाड़ बीनने लगे... 

और वो मध्यम वर्ग जिसकी आँखों में मज़दूर को काम करता देख खून उतरता था, अधिसंख्य को जीवन में दुबारा कोई नौकरी ना मिली। एक बड़ी जनसंख्या ने अपना जीवन "बेरोज़गार" रहते हुए "डिप्रेशन" में काटा।

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"कॉम्युनिस्ट अफ़ीम" बहुत "घातक" होती है, उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं..! 

कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिन्सिपल यह है : 

"दो क्लास के बीच पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना"


 1945 में बेगमाबाद का नाम बदलकर मोदीनगर किया गया था, पूरे देश से लोग अपनी रोटी की तलाश में मोदीनगर की मोदी मिल्स में नौकरी करने आते थे।


उद्योगति श्री गुर्जर मल मोदी ने 


मोदी पोन, मोदी टायर, मोदी कपड़ा मिल, मोदी वनस्पति, मोदी चीनी मिल... बाद में मोदी हॉस्पिटल, मोदी धर्मशाला, मोदी कॉलेज की भी स्थापना की।


 तरक़्क़ी और ख़ुशहाली की धारा बहने लगी।


लेकिन...


एक दिन लाल झंडे वाले वहाँ आये, ठीक वैसे ही जैसे आजकल आंदोलन में किसानों के साथ नज़र आते हैं। उन्होंने मजदूरों को समझाया कि कैसे मिल मालिक, तुम मजदूरों का शोषण करता है।

मोदी भले ही उन्हें मंदिर, कॉलेज, अस्पताल, घर, विवाह के लिए भवन, यहां तक की घर की पुताई के पैसे तक दे रहे थे लेकिन समझाया यह गया कि वह उनका शोषण कर रहा है।


और

फिर शुरू हुई क्रांति.... बताया जाता है कि एक बार जब मोदी साहब की पत्नी मंदिर गईं, तो मजदूर नेताओं ने कपड़े उतारकर उनके सामने नग्न-प्रदर्शन किया।


उस दिन के बाद मोदी नगर फिर कभी वैसा नहीं रहा। चीनी मिल को छोड़कर एक-एक करके सारी मोदी इंडस्ट्री वहाँ से उठा ली गई।


 चीनी मिल आज भी बची हुई है क्योंकि तब किसानों ने लाल झंडे वालों को कभी अपने बीच घुसने नहीं दिया और ना ही क्रांति करने ही नहीं दी।


लेकिन आज यह #लालझंडाकिसानोंमेंअपनीपैंठबनाचुकाहै।


जिस मोदीनगर में देश के कोने-कोने से लोग नौकरी करने जाते थे, आज उसी मोदीनगर के लोग बस-रेल में भरकर साधारण सी नौकरियां करने दिल्ली-नोयडा-गाजियाबाद जाते हैं।


पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में लगने वाली टाटा नैनो की फैक्ट्री जिसमें पन्द्रह हज़ार लोगों को नौकरी मिलनी थी, उसे भी ममता बनर्जी के संगठित भीड़तंत्र ने फर्जी आंदोलन द्वारा बंगाल से गुजरात शिफ्ट होने के लिये  मजबूर कर दिया। बंगाल के ऐसे सभी आंदोलनों का नतीजा- बीमार बंगाल...


लाल झंडा, एक ऐसी विचारधारा है, जिसमें विश्वविद्यालय का कुलपति, मिल-मालिक, कॉरपोरेट और देश का प्रधानमंत्री, सभी दुश्मन दिखाई देते हैं


 इसीलिये #मोदीतूमर_जा के गीत गाये जाते हैं।


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